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रविवार, नवंबर 27, 2005

" मेरी शायरी का फ़न( कला) ,मारुसी ( पैतृक) नहीं है क्योंकि न मेरे वालिद शायर थे न दादा। हाँ, मेरी सातवीं पुश्त में जो मेरे जद्दे-अमजद ( पूर्वज) थे उनके बारे में किताबों में पढ़ा है कि वो शायर थे और उनका नाम ख़लीफ़ा मोहम्मद वासिल था। मुमकिन हैं वही ज़ौक़( अभिरुचि) सात पुश्तों की छलांग लगाकर मेरे हिस्से में आया हो"-
>>>>शकील बदायुनी<<<<
मेरी ज़िन्दगी पे न मुस्कुरा मुझे ज़िन्दगी का अलम नहीं
जिसे तेरे ग़म से हो वास्ता वो ख़िज़ां बहार से कम नहीं
मेरा कुफ़्र हासिले-ज़ुहद है, मेरा ज़ुहद हासिले-कुफ़्र है
मेरी बन्दगी वो है बन्दगी जो रहीने-दैरो-हरम नहीं
मुझे रास आयें खुदा करे यही इश्तिबाह की साअ़तें
उन्हें एतबारे-वफ़ा तो है मुझे एतबारे-सितम नहीं
वही कारवां, वही रास्ते, वही ज़िन्दगी, वही मरहले
मगर अपने-अपने मुक़ाम पर कभी तुम नहीं कभी हम नहीं
न वो शाने-जब्रे-शबाब है, न वो रंगे-क़हरे-इताब है
दिले-बेक़रार पे इन दिनों है सितम यही कि सितम नहीं
न फ़ना मेरी न बक़ा मेरी, मुझे ऐ 'शकील' न ढूंडिये
मैं किसी का हुस्ने-ख़्याल हूं मेरा कुछ वुजूदो-अलम नहीं
अलम=ग़म, कुफ़्र = नास्तिकता, हासिले-ज़ुहूद= संयम का फल,रहीने-दैरो-हरम= मन्दिर-मस्जिद की आभारी,इश्तिबाह की साअ़तें= शंका के पल, शाने- जब्रे-शबाब= यौवन के दमन की शान,रंगे-कहरे-इताब=रोष के प्रकोप का रंग,फ़ना=मृत्यु,बक़ा=जीवन, वुजूदो-अदम= अनिस्तत्व और अस्तित्व

गुरुवार, नवंबर 17, 2005

तरक़्क़ीपसंद शायर कैफ़ी आज़मी की लेखनी ,आम आदमी की समस्याओं के लिये करुणामयी होती है तो जूझने के लिये आशा और विश्वास भी प्रदान करती है । शायर का अवलोकन और अन्वेषण अनूठा है और मानों हमें, अपने आप से जोड़ जाता है ।

वो भी सराहने लगे अरबाबे-फ़न के बाद
दादे-सुख़न मिली मुझे तर्के-वतन के बाद

दीवानावार चाँद से आगे निकल गए
ठहरा न दिल कहीं भी तेरी अंजुमन के बाद

एलाने-हक़ में ख़तरा-ए-दारो' रसन तो है
लेकिन सवाल ये है कि दारो-रसन के बाद

होंटों को सी के देखिये पछताइएगा आप
हंगामें जाग जाते हैं अक्सर घुटन के बाद

ग़ुरबत की ठंडी छाँव में याद आई उसकी धूप
क़द्रे-वतन हुई हमें तर्के-वतन के बाद

इंसाँ की ख़ाहिशों की कोई इन्तेहा नहीं
दो गज़ ज़मीन चाहिए, दो गज़ कफ़न के बाद

अरबाब= मित्रों, दादे-सुख़न= कविता की प्रशंसा, तर्के-वतन=वतन छोड़ना, खतरा-ए-दारो'रसन=फ़ाँसी पाने का ख़तरा,ग़ुरबत= परदेस

मंगलवार, अक्तूबर 25, 2005

जनाब क़तील शिफ़ाई का जन्म २४ दिसंबर १९१९ , हरिपुर ,हज़ारा( सरहद) का बताया जाता है उनकी शायरी में, माधुर्य तथा शब्द सौन्दर्य होने के साथ साथ शायर का मनोवृतान्त भी है, जो कविता को सही मायने में सशक्त बनाता है ।

आज और कल

जब छलकते हैं ज़रो-सीम के गाते हुए जाम
एक ज़हराब सा माहौल में घुल जाता है
काँप उठता है तिही-दस्त जवानो का ग़रूर
हुस्न जब रेशमो-कमख़्वाब में तुल जाता है

मैंने देखा है कि इफ़्लास के सहराओं मे
क़ाफ़िले अ़ज़्मते-एहसास के रुक जाते हैं
बेकसी गर्म निगाहों को झुलस देती है
दिल किसी शो'ला-ए-ज़रताब से फुक जाते हैं

जिन उसूलों से इबारत है मुहब्बत की असास
उन उसूलों को यहाँ तोड़ दिया जाता है
अपनी सहमी हुई मंज़िल के तहफ़्फ़ुज़ के लिये
रहगुज़ारों में धुआँ छोड़ दिया जाता है

मैंने जो राज़ ज़माने से छुपाना चाहा
तूने आफ़ाक़ पे उस राज़ का दर खोल दिया
मेरी बाँहों ने जो देखे थे सुनहरे सपने
तूने सोने की तराजू मे उन्हें तोल दिया

आज इफ़्लास ने खाई है ज़रो-सीम से मात
इसमें लेकिन तेरे जल्वों का कोई दोष नहीं
ये तग़य्युर इसी माहौल का पर्वुर्दा है
अपनी बेरंग तबाही का जिसे होश नहीं

रह्गुज़ारों के धुँधलके तो ज़रा हट जाएँ
अपनें तलवों से ये काँटे भी निकल जाएँगे
आज और कल की मुसाफ़त को ज़रा तै कर लें
वक़्त के साथ इरादे भी बदल जाएँगे

ज़रो-सीम= सोने चाँदी , ज़हराब= तरल विष , तिही-दस्त=ख़ाली हाथ
इफ़्लास= निर्धनता, अज़्मते-एहसास=भावों की महानता , ज़रताब= धन,असास=नींव,
तहफ़्फ़ुज= रक्षा, आफ़ाक़= संसार ,तग़य्युर=परिवर्तन, पर्वुर्दा = वातावरण, मुसाफ़त= अन्तर

गुरुवार, अक्तूबर 20, 2005

शायर इक़बाल का नज़रिया -

तेरे सीने में दम है दिल नहीं है।
तेरा दम गर्मी-ए-महफ़िल नहीं है॥
गुज़र जा अक़्ल से आगे कि यह नूर।
चिराग़े-राह है मंज़िल नहीं है ॥

बुधवार, अक्तूबर 12, 2005

जनाब ख़्वाजा हैदर अली आतिश की पैदाइश १७७८ में उत्तर प्रदेश के फ़ैज़ाबाद शहर की बताई जाती है।आतिश अमीरों के लिये क़सीदे कहने से दूर रहे । इन्हे शायरी और तलवारबाज़ी का शौक़ था एवं मशहूर शायर 'मीर' को आतिश ने अपना उस्ताद माना।

गुल के अफ़ज़ मेरी आँखों में हैं दिलजू कांटे
फूल रखता है तेरी बू तो तेरी ख़ू कांटे

हमनशीं दिल नहीं इक आबला-सा पकता है
जी में आता है भरूं चीर के पहलू कांटे

बद-सरिश्तों को न नेकों का असर हो हरगिज़
सुहबते गुल से न होवें कभी ख़ुशबू कांटे

बाग़े-आलम में जो राहत है तो फिर रंज भी है
ता-कमर गुल है तो यां ता-सरे-ज़ानूं कांटे

जो न दे रंग किसी को उसे होता नहीं रंज
पांव पर मेरे नहीं पाने के क़ाबू कांटे

बद-सरिश्त=बुरे स्वभाव वाले

बुधवार, अक्तूबर 05, 2005

अली सरदार जाफ़री का जन्म २९ नवम्बर १९१३ को बलरामपुर,ज़िला गोंडा ( अवध) में हुआ था । सरदार जाफ़री की शायरी में आशावाद एवं इंक़लाबियत का चित्रण नयी उमंगें जगाता है ।शायर का सौंदर्यबोध हमें और आप को ख़ुद ब ख़ुद रोमानी बनता चलता है। एक उदाहरण इस प्रकार है :

इश्क़ का नग़्मा जुनू के साज़ पर गाते हैं हम ।
अपने ग़म की आंच से पत्थर को पिघलाते है हम ॥
जाग उठते हैं तो सूली पर भी नींद आती नहीं।
वक़्त पड़ जाये तो अंगारों पे सो जाते है हम॥
द्फ़्न होकर ख़ाक में भी द्फ़्न रह सकते नहीं ।
लाला-ओ-गुल बन के वीरानों पे छा जाते हैं हम।....

मंगलवार, अक्तूबर 04, 2005

इक़बाल के अलफ़ाज़ :

ज़ुलमे-बहर में खोकर संभल जा।
तड़प जा, पेंच खा-खाकर बदल जा ॥
नहीं साहिल तेरी क़िस्मत में ऐ मौज ।
उभरकर जिस तरह चाहे निकल जा॥

ज़ुलमे-बहर= समुद्र की गहराईयों में, मौज =लहर