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सोमवार, दिसंबर 31, 2007


मिर्ज़ा नज़ीर अकबराबादी का जन्म क़रीब सन १७४० में दिल्ली में हुआ था और १८३० में ९० बरस की आयु में आगरे में समाधि पाई।’शेर ओ शायरी’ में श्री अयोध्या प्रसाद गोयलीय लिखते हैं "नज़ीर संतोषी जीव थे। लखनऊ और भरतपुर स्टेट के निमंत्रणों पर भी नहीं गये। अत्यन्त मृदुभाषी,हँसमुख और मिलनसार थे। सभी से दिल से मिलते थे। हर मज़हब के उत्सवों में बिना भेद भाव शामिल होते थे। पक्षपात और मज़हबी दीवानगी को पास तक नहीं फटकने देते थे। जब मरे तो हज़ारों हिन्दू भी जनाज़े के साथ थे। जवानी में कुछ आशिका़ना रंग में भी रहे ,और लिखा भी,मगर जल्द सम्हल गये। नज़ीर के कलाम में से मामूली अशआर निकाल दिये जाएँ तो विद्वानों का मत है कि वे बड़े-बड़े दार्शनिक और उपदेशकों की श्रेणी में सरलता से बैठाये जा सकते हैं।"

तन्दुरुस्ती और आबरू :----
दुनिया में अब उन्हीके तईं कहिए बादशाह।
जिनके बदन दुरुस्त है दिनरात सालोमाह ॥

जिस पास तन्दुरुस्ती और हुरमतकी हो सिपाह।
ऐसी फिर और कौनसी दौलत है वाह-वाह ॥

जितने सख़ुन हैं सबमें यही है सखु़न दुरुस्त---
" अल्लाह आबरू से रखे और तन्दुरुस्त" ॥

कलियुग :---
अपने नफ़ेके वास्ते मत औरका नुक़सान कर।
तेरा भी नुक़साँ होयगा इस बात ऊपर ध्यान कर॥

खाना जो खा तो देखकर,पानी जो पी तो छानकर।
याँ पाँवको रख फूँककर और खौ़फ़से गुज़रान कर॥

कलयुग नहीं कर-जुग है यह,याँ दिनको दे और रात ले।
क्या खूब सौदा नक़्द है, इस हाथ दे उस हाथ ले॥
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नज़ीर अकबराबादी के बारे में शायर निदा फ़ाज़ली के ख़्यालात पढ़नें लायक हैं और रेडियोवाणी पर सुननें लायक भी।

शुक्रवार, दिसंबर 28, 2007

निदा फ़ाज़ली का जन्म १२ अक्टूबर १९३८ को दिल्ली में हुआबचपन ग्वालियर में गुज़रापहला कविता संग्रह : ’लफ़्ज़ों का पुल’ । १९९९ मेंखोया हुआ सा कुछके लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित
शानी के अनुसारउर्दू शायरी की सबसे बडी़ शिनाख़्त यह है कि उसने फ़ारसी की अलामतों से अपना पीछा छुडा्कर अपनें आसपास को देखा, अपने इर्द गिर्द की आवाज़ें सुनी और अपनी ही ज़मीन से उखड़ती जडो को फिर से जगह देकर मीर, मीराजी, अख़्तरुल ईमान, जानिसार अख़्तर जैसे कवियों से अपना नया नाता जोडा़।...... यह संयोग की बात नहीं है कि उर्दू के कुछ जदीद शायरों ने तो हिन्दी और उर्दू की दीवार ही ढ़हाकर रख दी है और ऐसे जदीदियों में निदा फ़ाज़ली का नाम सबसे पहले लिया जाएगा।’


नई भाषा
( अपनी बेटी तहरीर के लिए)

वो आई
और उसने मुस्कुराके
मेरी बढ़ती उम्र के
सारे पुराने, जाने-पहचाने बरस
पहले हवाओं में उडा़ए
और फिर
मेरी ज़बाँ के सारे लफ़्ज़ों को
ग़ज़ल को
गीत को
दोहों को
नज़मों को
खुली खिड़की के बाहर फेंक कर
यूँ खिलखिलाई
कलम ने मेज़ पर लेटे ही लेटे
आँख मिचकाई
म्याऊँ करके कूदी
बंद शीशी में पडी़ स्याही
उठा के हाथ दोनो चाय के कप ने ली
अंगडा़ई
छ्लाँगे मार के हंसने लगी
बरसों की तन्हाई
अचानक मेरे होठों पर
इशारों और बेमानी सदाओं की
वही भाषा उभर आई
जिसे लिखता है सूरज
जिसे पढ़ता है दर्या
जिसे सुनता है सब्ज़ा
जिसे सदियों से बादल बोलता है
और हर धरती समझती है

सोमवार, दिसंबर 24, 2007


शायर अदम का जन्म जून १९०९ में तलवंडी, मूसा-खां ( सरहद प्रान्त, पाकिस्तान) में हुआ था
अदम के बारे में प्रकाश पंडित लिखते हैं :’ सुनी सुनाई बातों के प्रसंग में ही मुझे मालूम हुआ कि अपनी नौकरी केसंबंध में ( अदम पाकिस्तानी सरकार के औडिट एण्ड अकाउंट्स विभाग में गज़टेड आफ़ीसर है) बहुत होशियारऔर ज़िम्मेदार हैकराची आने से पूर्व वह काफ़ी समय तक रावलपिन्डी और लाहौर में भी रह चुका है और स्वर्गीयअख़्तर शीरानी से उसकी गहरी छनती थीकारण समकालीन शायर होनें से अधिक एक साथ और एक समानमदिरापान थादोनो बेतहाशा पीते थे और बुरी तरह बहकते थे
श्री पंडित के अनुसार "अदम में व्यक्तित्व और शायरी की प्रवृति का समन्वय, समस्त त्रुटियों और हीनताओं केबावजूद शायार में काव्यात्मक शुद्ध-हृदयता या शायराना खु़लूस दर्शाता हैकवि वही बात कहता है जो अनुभूतियोंसे पैदा होती हैफिर भी, उर्दू शायरी का यह मद्यप और मतवाला शायर उसी मार्ग पर भटकता नज़र आता है जिसेसदियों पहले उमर ख़य्याम ने तराशा और समतल किया थाऔर जिसे पार करके आज के शायर कहीं से कहींनिकल गये हैं।"
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तही भी हों तो पैमाने हसीं मालूम होते हैं
हका़यक़ से तो अफ़साने हसीं मालूम होते हैं ॥
मुलाका़तें मुसलसल हों तो दिलचस्पी नहीं रहती
ये बेतरतीब याराने हसीं मालूम होते हैं ॥
उदासी भी ’अदम’ एहसासे-ग़म की एक दौलत है
बसा-औका़त वीराने हसीं मालूम होते हैं ॥

तही= जो खा़ली हैं, हका़यक़= वास्तविक, मुसलसल= निरन्तर, बसा-औका़त = कभी कभी


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जुनूँ का जो मुआमला है, वो शुस्ता--खु़शनिज़ाम होगा
बिला तकल्लुफ़ जो चल पड़ेआ, वो राहरौ तेज़गाम होगा

जो हर ख़ताकार राह्ज़न को दुआये देकर चला गया है
वो शख़्स मेरा ख़याल ये है बहुत ही आली-मुका़म होगा

हमें गरज़ क्या कि बज़्मे-महशर की हाऊ-हू-में शरीक होते
वहां गये जो हैं छुप-छुपाकर, उन्हे वहां कोई काम होगा

चलो ये मंज़र भी देख ही लेंअदमतकल्लुफ़ की गुफ़्तगू का
सुना है मूसा से तूर पर आज फिर कोई हम-कलाम होगा

जुनूँ= उन्माद ,शुस्ता--खु़शनिज़ाम= सुन्दर,व्यवस्थित,राहरौ= पथिक,तेज़गाम=द्रुतगामी,राह्ज़न=लुटेरा,आली-मुका़म=महान,बज़्मे-महशर=प्रलय-क्षेत्र, मंज़र=दृश्य,हम-कलाम=सम्बोधित
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अदम की शायरी का एक और नमूना मलिका पुखराज की आवाज़ में



मंगलवार, जुलाई 31, 2007


"शायर न तो कुल्हाड़ी की तरह पेड़ काट सकता है न इन्सानी हाथों की तरह मिट्टी के प्याले बना सकता है।वह पत्थर से बुत नहीं तराशता, बल्कि जज़्बात और एहसासात की नई-नई तस्वीरें बनाता है। वह पहले इन्सान के जज़्बात पर असर-अंदाज़ होता है और इस तरह उसमें दाख़ली( अंतरंग) तबदीली पैदा करता है और फिर उस इन्सान के ज़रिये से माहौल ( वातावरण) और समाज को तबदील करता है।"
........अली सरदार जाफ़री......


नसीमे-सुबह-तसव्वुर ये किस तरफ़ से चली
कि मेरे दिल में चमन-दर-किनार आती है ॥
कहीं मिले तो मेरे गुल-बदन से कह देना,
तेरे ख़्याल से बू-ए-बहार आती है ॥


नसीमे-सुबह-तसव्वुर=कल्पना का प्रभात समीर, चमन-दर-किनार= वाटिका को बगल में लिये , बू-ए-बहार=वसंत ऋतु की महक

शुक्रवार, जुलाई 20, 2007

" मै शायरी में लहजे को सबसे बड़ी चीज़ समझता हूँ, इसी लहजे में शायर की शख़्सियत छिपी हुई होती है। "
---फ़िराक़ गोरखपुरी---


देखते रहो
-१२ में से ३ बन्द-
आते हैं रौंदते हुए तख़्तो-ताज को
औरंगो-शाने-क़ज़कुलाहा देखते रहो
जन्नत उतार लायेगा रूए-ज़मीन पर
इन्सानियत का अ़ज़्मे-जवाँ देखते रहो

जो मौत बेचते हैं, ज़माने के हाथ आज
फुँकने को है कल उनकी दुकाँ देखते रहो
दुनिया को हम करेंगे हसीं से हसीन-तर
तुम जलवा हाए-लाला-रुखाँ देखते रहो

हम गर्मिए-अ़मल से बदल देंगे काएनात
तुम सोज़ो-साज़े-क़ल्बे-तपाँ देखते रहो
ग़म के पहाड़ काटे जो कटते नहीं ’फ़िराक़’
उड़ जायेंगे वह बनके धुआँ देखते रहो



औरंगो-शाने-कज़कुलाहा= बादशाहों की इज़्ज़तों और सिंघासनों को, रूए-ज़मीन=पृथ्वी पर, अ़ज़्मे-जवाँ =दृढ़ इरादा, लाला-रुखाँ =सुन्दरियों को

शुक्रवार, जुलाई 06, 2007

इस्माइल मेरठी - के बारे में श्री प्रकाश पंडित 'शायरी के नये दौर' में लिखते है- सन् १८४४ ई। में जन्में । १६ वर्ष की आयु में शिक्षा विभाग में नियुक्त हुए और अपनी योग्यता के बल पर बहुत शीध्र फ़ारसी के प्रधान शिक्षक पद पर आसीन हो गये। आपनें नज़्में रुबाइयाँ, गज़लें कहीं और बच्चों के लिये सरल भाषा में उपदेशपूर्ण नज़्म कहीं।

वही 'कारवाँ' वह 'क़ाफ़िला' तुम्हें याद हो कि याद हो
वही 'मंज़िल'--वही ' मरहला' तुम्हें याद हो कि याद हो
मुतफ़ाइलिन, मुतफ़ाइलिन, मुतफ़ाइलिन, मुतफ़ाइलिन
इसे वज़्न कहते हैं शेर का, तुम्हे याद हो कि ना याद हो
यही 'शुक्र' है जो 'सिपास' है वह 'मलूल' है जो 'उदास' है
जिसे 'शिकवा' कहते हो है ' गिला' तुम्हे याद हो कि याद हो
वही 'नुक्स' है वही खोट है, वही ' ज़र्ब ' है, वही 'चोट' है
वही 'सूद' है वही'फ़ायदा' तुम्हे याद हो कि याद हो
वही है' नदी' वही 'नहर' है वही 'मौज' है वही 'लहर' है
यह 'हुबाब' है वही' बुलबुला' तुम्हे याद हो कि याद हो
जिसे ' भेद' कहते हो 'राज़' है जिसे 'बाजा' कहते हो 'साज़' है
जिसे 'तान' कहते हो है'नवा' तुम्हे याद हो कि याद हो
वही' ख़्वार' है जो 'ज़लील' है , वही दोस्त है जो 'ख़लील' है
'बद'--'नेक' है 'बुरा'-'भला' तुम्हे याद हो कि याद हो

शुक्रवार, मई 25, 2007

मिर्ज़ा दाग़ ( जन्म : २५ मई, १८३१) के चुने हुए शेर

न बदले आदमी जन्नत से भी बैतुल-हज़न अपना
कि अपना घर है अपना, और है अपना वतन अपना

जो भले हैं,वो बुरों को भी भला कहते हैं
न बुरा सुनते हैं अच्छे, न बुरा कहते है

वो नक़दे-दिल को हमेंशा नज़र में रखते हैं
जो आंख वाले हैं,अच्छा-बुरा परखते हैं

बादशाहों को भी लोग हैं देने वाले
यह फ़क़ीरों ही को अल्लाह ने हिम्मत दी है

ढ़ूंढ़ती है तुझे मेरी आंखें
ए वफ़ा कुछ तेरा पता भी है

न आया है, न आए उनके वादे का यक़ीं बरसों
यूं ही आज-कल-परसों, मगर मिलते नहीं बरसों


यहाँ सुनिये दाग़ की लिखी ग़ज़ल -" न- रवा कहिये"

बैतुल-हज़न=निवास स्थान, नक़दे-दिल= हृदय -पूँजी, रवा =बेढंगा

बुधवार, मई 16, 2007

मजाज़ की लिखी एक और ग़ज़ल :
कुछ तुझको खबर है हम क्या क्या, ये शोरिशे-दौरां भूल गए
वो ज़ुल्फ़े-परीशां भूल गये, वो दीदा-ए-गिरियां भूल गए
ऐ शौक़े-नज़ारा क्या कहिये, नज़रों मे कोई सूरत ही नहीं
ऐ ज़ौक़े-तसव्वुर क्या कीजै, हम सूरते-जानां भूल गए
अब गुल से नज़र मिलती ही नहीं,अब दिल की कली खिलती ही नहीं
ऐ फ़स्ले-बहारां रुख़्सत हो,हम लुत्फ़े-बहारां भूल गए
सब का तो मुदावा कर डाला,अपना ही मुदावा कर न सके
सब के तो गरेबां सी डाले,अपना ही गरेबां भूल गए
ये अपनी वफ़ा का आलम है, अब उनकी जफ़ा को क्या कहिये
इक नश्तरे-ज़हर-आगीं रखकर, नज़दीके-रगे-जां भूल गए
शोरिशे-दौरां=संसार के उपद्रव, ज़ुल्फ़े परीशां=बिखरे केश, दीदा-ए-गिरियां=रोती आँखें, शौक़े-नज़ारा= देखनें की चाह,ज़ौके-तसव्वुर= कल्पना की प्रवृति, सूरते-जानां=प्रेयसी की शक्ल, फ़स्ले-बहारां=वसन्त ‌‌‌ऋतु,मुदावा=उपचार, नश्तरे-ज़हर= विष में बुझा हुआ नश्तर

गुरुवार, मई 10, 2007

असरारुल हक़ "मजाज़" का जन्म १९०९ में अवध के एक प्रसिद्ध कस्बे रदौली में हुआ था । मजाज़ की शायरी का आरम्भ बिलकुल परम्परागत ढंग से हुआ और उन्होनें उर्दू शायारी के मिज़ाज का सदैव ख़्याल रखा। श्री प्रकाश पंडित मजाज़ की शायरी में देखते है "सुलझा हुआ बोध या विवेक" और लिखते हैं "खा़लिस इश्क़िया शायरी करते हुए भी वह अपनें जीवन तथा जन साधारण के जीवन के प्रभावों तथा प्रकृतियों को विस्मृत नहीं करता । हुस्नों-इश्क़ का एक अलग संसार बसाने की बजाय वह हुस्नों-इश्क़ पर लगे सामाजिक प्रतिबन्धों के प्रति अपना रोष प्रगट करता है।आसमानी हूरों की ओर देखनें की बजाय उसकी नज़र रास्ते के गंदे लेकिन ह्र्दयाकर्षक सौन्दर्य पर पड़ती है और इन दृश्यों के प्रेक्षण के बाद वह जन-साधारण की तरह जीवन के दु:ख-दर्द के बारे में सोचता है और फिर कलात्मक निखार के साथ जो शे’र कहता है तो उसमें केवल किसी’ज़ोहरा-जबीं’ से प्रेम ही नहीं होता,विद्रोह की झलक भी होती है। यह विद्रोह कभी वह वर्तमान जीवन-व्यव्स्था से करता है, कभी साम्राज्य से;और जीवन की वंचनाओं के वशीभूत कभी कभी इतना कटु हो जाता है कि अपनी ज़ोहरा-जबीनों के रंगमहलों को छिन्न-भिन्न कर देना चाहता है।"

नहीं ये फ़िक्र कोई रहबरे-कामिल नहीं मिलता
कोई दुनिया में मानूसे-मिज़ाजे-दिल नहीं मिलता

कभी साहिल पे रहकर शौक़ तूफ़ानों से टकराएं
कभी तूफ़ां में रहकर फ़िक्र है साहिल नहीं मिलता

ये आना कोइ आना है कि बस रस्मन चले आये
ये मिलना खा़क मिलना है कि दिल से दिल नहीं मिलता

शिकस्ता-पा को मुज़्दा, ख़स्तगाने-राह को मुज़्दा
कि रहबर को सुराग़े-जादा-ए-मंज़िल नहीं मिलता

वहां कितनों को तख़्तो ताज का अरमां है क्या कहिये
जहां साइल को अक्सर कासा-ए-साइल नहीं मिलता

ये क़त्ले-आम और बे-इज़्न क़त्ले-आम क्या कहिये
ये बिस्मिल कैसे बिस्मिल हैं जिन्हें का़तिल नहीं मिलता

रहबरे-कामिल= सिद्ध पथ-प्रदर्शक, मानूसे-मिज़ाजे-दिल= स्वभाव से परिचित( मित्र), शिकस्ता-पा= शिथिल जनों को, मुज़्दा=मंगल समाचार, ख़स्त्गाने-राह= मंज़िल के मार्ग का पता ,साइल=भिखारी, कासा-ए-साइल=भिक्षा-पात्र,
बे-इज़्न क़त्ले -आम= निर्देश बिना सर्व-संहार, बिस्मिल= आहत