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शुक्रवार, मई 25, 2007

मिर्ज़ा दाग़ ( जन्म : २५ मई, १८३१) के चुने हुए शेर

न बदले आदमी जन्नत से भी बैतुल-हज़न अपना
कि अपना घर है अपना, और है अपना वतन अपना

जो भले हैं,वो बुरों को भी भला कहते हैं
न बुरा सुनते हैं अच्छे, न बुरा कहते है

वो नक़दे-दिल को हमेंशा नज़र में रखते हैं
जो आंख वाले हैं,अच्छा-बुरा परखते हैं

बादशाहों को भी लोग हैं देने वाले
यह फ़क़ीरों ही को अल्लाह ने हिम्मत दी है

ढ़ूंढ़ती है तुझे मेरी आंखें
ए वफ़ा कुछ तेरा पता भी है

न आया है, न आए उनके वादे का यक़ीं बरसों
यूं ही आज-कल-परसों, मगर मिलते नहीं बरसों


यहाँ सुनिये दाग़ की लिखी ग़ज़ल -" न- रवा कहिये"

बैतुल-हज़न=निवास स्थान, नक़दे-दिल= हृदय -पूँजी, रवा =बेढंगा

बुधवार, मई 16, 2007

मजाज़ की लिखी एक और ग़ज़ल :
कुछ तुझको खबर है हम क्या क्या, ये शोरिशे-दौरां भूल गए
वो ज़ुल्फ़े-परीशां भूल गये, वो दीदा-ए-गिरियां भूल गए
ऐ शौक़े-नज़ारा क्या कहिये, नज़रों मे कोई सूरत ही नहीं
ऐ ज़ौक़े-तसव्वुर क्या कीजै, हम सूरते-जानां भूल गए
अब गुल से नज़र मिलती ही नहीं,अब दिल की कली खिलती ही नहीं
ऐ फ़स्ले-बहारां रुख़्सत हो,हम लुत्फ़े-बहारां भूल गए
सब का तो मुदावा कर डाला,अपना ही मुदावा कर न सके
सब के तो गरेबां सी डाले,अपना ही गरेबां भूल गए
ये अपनी वफ़ा का आलम है, अब उनकी जफ़ा को क्या कहिये
इक नश्तरे-ज़हर-आगीं रखकर, नज़दीके-रगे-जां भूल गए
शोरिशे-दौरां=संसार के उपद्रव, ज़ुल्फ़े परीशां=बिखरे केश, दीदा-ए-गिरियां=रोती आँखें, शौक़े-नज़ारा= देखनें की चाह,ज़ौके-तसव्वुर= कल्पना की प्रवृति, सूरते-जानां=प्रेयसी की शक्ल, फ़स्ले-बहारां=वसन्त ‌‌‌ऋतु,मुदावा=उपचार, नश्तरे-ज़हर= विष में बुझा हुआ नश्तर

गुरुवार, मई 10, 2007

असरारुल हक़ "मजाज़" का जन्म १९०९ में अवध के एक प्रसिद्ध कस्बे रदौली में हुआ था । मजाज़ की शायरी का आरम्भ बिलकुल परम्परागत ढंग से हुआ और उन्होनें उर्दू शायारी के मिज़ाज का सदैव ख़्याल रखा। श्री प्रकाश पंडित मजाज़ की शायरी में देखते है "सुलझा हुआ बोध या विवेक" और लिखते हैं "खा़लिस इश्क़िया शायरी करते हुए भी वह अपनें जीवन तथा जन साधारण के जीवन के प्रभावों तथा प्रकृतियों को विस्मृत नहीं करता । हुस्नों-इश्क़ का एक अलग संसार बसाने की बजाय वह हुस्नों-इश्क़ पर लगे सामाजिक प्रतिबन्धों के प्रति अपना रोष प्रगट करता है।आसमानी हूरों की ओर देखनें की बजाय उसकी नज़र रास्ते के गंदे लेकिन ह्र्दयाकर्षक सौन्दर्य पर पड़ती है और इन दृश्यों के प्रेक्षण के बाद वह जन-साधारण की तरह जीवन के दु:ख-दर्द के बारे में सोचता है और फिर कलात्मक निखार के साथ जो शे’र कहता है तो उसमें केवल किसी’ज़ोहरा-जबीं’ से प्रेम ही नहीं होता,विद्रोह की झलक भी होती है। यह विद्रोह कभी वह वर्तमान जीवन-व्यव्स्था से करता है, कभी साम्राज्य से;और जीवन की वंचनाओं के वशीभूत कभी कभी इतना कटु हो जाता है कि अपनी ज़ोहरा-जबीनों के रंगमहलों को छिन्न-भिन्न कर देना चाहता है।"

नहीं ये फ़िक्र कोई रहबरे-कामिल नहीं मिलता
कोई दुनिया में मानूसे-मिज़ाजे-दिल नहीं मिलता

कभी साहिल पे रहकर शौक़ तूफ़ानों से टकराएं
कभी तूफ़ां में रहकर फ़िक्र है साहिल नहीं मिलता

ये आना कोइ आना है कि बस रस्मन चले आये
ये मिलना खा़क मिलना है कि दिल से दिल नहीं मिलता

शिकस्ता-पा को मुज़्दा, ख़स्तगाने-राह को मुज़्दा
कि रहबर को सुराग़े-जादा-ए-मंज़िल नहीं मिलता

वहां कितनों को तख़्तो ताज का अरमां है क्या कहिये
जहां साइल को अक्सर कासा-ए-साइल नहीं मिलता

ये क़त्ले-आम और बे-इज़्न क़त्ले-आम क्या कहिये
ये बिस्मिल कैसे बिस्मिल हैं जिन्हें का़तिल नहीं मिलता

रहबरे-कामिल= सिद्ध पथ-प्रदर्शक, मानूसे-मिज़ाजे-दिल= स्वभाव से परिचित( मित्र), शिकस्ता-पा= शिथिल जनों को, मुज़्दा=मंगल समाचार, ख़स्त्गाने-राह= मंज़िल के मार्ग का पता ,साइल=भिखारी, कासा-ए-साइल=भिक्षा-पात्र,
बे-इज़्न क़त्ले -आम= निर्देश बिना सर्व-संहार, बिस्मिल= आहत