मिर्ज़ा दाग़ ( जन्म २५ मई १८३१)
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बशर ने खा़क पाया, लाल पाया या गुहर पाया।
मिज़ाज अच्छा अगर पाया तो सब कुछ उसने भर पाया ॥
समझो पत्थर की तुम लकीर उसे।
जो हमारी ज़बान से निकला ॥
जिसमे लाखों बरस की हूरें हो।
ऐसी जन्नत को क्या करे कोई॥
कहीं दुनिया मे नहीं इसका ठिकाना ऐ ’दाग़’!
छोड़कर मुझको कहाँ जाय मुसीबत मेरी ?
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बशर ने खा़क पाया, लाल पाया या गुहर पाया।
मिज़ाज अच्छा अगर पाया तो सब कुछ उसने भर पाया ॥
समझो पत्थर की तुम लकीर उसे।
जो हमारी ज़बान से निकला ॥
जिसमे लाखों बरस की हूरें हो।
ऐसी जन्नत को क्या करे कोई॥
कहीं दुनिया मे नहीं इसका ठिकाना ऐ ’दाग़’!
छोड़कर मुझको कहाँ जाय मुसीबत मेरी ?
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