यह ब्लॉग खोजें

रविवार, मई 25, 2008

मिर्ज़ा दाग़ ( जन्म २५ मई १८३१)
**********************
बशर ने खा़क पाया, लाल पाया या गुहर पाया।
मिज़ाज अच्छा अगर पाया तो सब कुछ उसने भर पाया ॥

समझो पत्थर की तुम लकीर उसे।
जो हमारी ज़बान से निकला ॥

जिसमे लाखों बरस की हूरें हो।
ऐसी जन्नत को क्या करे कोई॥

कहीं दुनिया मे नहीं इसका ठिकाना ऐ ’दाग़’!
छोड़कर मुझको कहाँ जाय मुसीबत मेरी ?

P گوهر gauhar, or gohar, s.m. Nature, essence, substance, stuff, matter; form; origin, root, stock, extraction; seed, offspring;--any hidden virtue;--intellect; wisdom;--a pearl; jewel, gem, precious stone:--lustre (of a gem, or a sword;--cf.



मंगलवार, मई 20, 2008

मीर मुहम्मद तकी़ मीर

"मीर साह्ब ई सन १७०९ में आगरे में पैदा हुए और १०० वर्ष की आयु में ई सन १८०९ में समाधि पायी।
६५ वर्ष की आय तक आप दिल्ली में ही रहे।
आप आवश्यकता से अधिक स्वाभिमानी , संतोषी, निस्वार्थी और कष्टसहिष्णु थे ।
माँगनें से मरना बेहतर समझते थे।
उम्र भर बाँकपन की टेक निभानें वाले मीर, ज़रा कड़वे मिज़ाज के थे।
मिलनसारी, ज़मानेंसाज़ी शायद पास तक नहीं फटकती थी। दूसरों की प्रशंसा करनें में भी कंजूस थे।
ज़रा सी बात दिल को ठेस पहुँचा देती ।
कौन मनुष्य कैसे व्यवहार का आदी है, यह वह जानते ही न थे । जो दिल में आता वही कह देते।
मीर के अशआर ग़मगीन और चुटीले दिलों पर खा़स असर करते हैं...मीर की शायरी तारीकी और ग़म से भरी हुई है, जिसमें कि उम्मीद की झलक नज़र नहीं आती।"
*********शेर ओ शायरी ********

कहते हो तो यूँ कहते, यूँ कहते जो वोह आता।
सब कहनें की बातें हैं, कुछ भी न कहा जाता॥

कहता है कौन तुझको याँ यह न कर तू वोह कर।
पर, हो सके तो प्यारे, दिल में भी टुक जगह कर॥

गुल की जफ़ा भी देखी, देखी वफ़ाए बुलबुल।
इक मुश्त पर पड़े हैं गुलशन में जाए बुलबुल॥

लुत्फ़ क्या है हर किसू की चाह के साथ।
चाह वोह है जो हो निबाह के साथ॥

मत ढ़लक मिज़गाँ से मेरे ऐ सरअश्क़ेआबदार ।
मुफ़्त ही जाती रहेगी तेरी मोती-की सी आब ॥

शुक्रवार, मई 09, 2008

वोह निकहत से सिवा पिन्हाँ, वोह गुलसे भी सिवा उरियां
यह हम हैं जो कभी परदा कभी जलवा समझते हैं ॥
*************असग़र गोंडवी************

+उरियाँ यहाँ प्रकट के अर्थ में प्रयोगित मालूम पड़ता है+

मंगलवार, मई 06, 2008

असग़र गोंडवी मार्च १, १८८४ ई. में पैदा हुए ।
असग़रहुसैन साहब ’असग़र’ शायर न होते तो भी उनकी प्रसिद्धि में कोई अंतर न आता।
आप सदाचारी और पवित्र थे ।
आमदनी अल्प होते हुए भी न कभी आपने तंगदस्ती का किसी से ज़िक्र किया,
न कभी मेहमाँनवाज़ी में अंतर रहनें दिया।
असग़र का प्रेम ईश्वरीय प्रेम है ।
आपके किसी शेर में दार्शनिकता है तो किसी में आध्यात्मिकता की झलक।
जो भी कहा गया है, बहुत गहरे में डूबकर कहा गया है। ":- शेर-ओ-सुख़न

*******************************
यह इश्क़ ने देखा है, यह अक़्ल से पिन्हां है
क़तरे में समंदर है, ज़र्रे में बयाबाँ है॥
धोका है यह नज़रों का, बाज़ीचा है, लज़्ज़त का।
जो कुंजे-क़फ़स मे था, वोह अस्ल गुलिस्तां है ।
*********************************

शनिवार, मई 03, 2008

मिर्ज़ा ग़ालिब

चलता हूँ थोड़ी दूर हर इक तेज़रौ के साथ।
पहचानता नहीं हूँ अभी राहबर को मैं।

( "जिस आदमी में कोई सिफ़ात देखता हूँ उसी पर विश्वास कर लेता हूँ, जिस किसी को अग्रगामी देख लेता हूँ उसी के पीछे चल पड़ता हूँ, इसका कारण यह है कि मैं अभी सच्चे हितैषी और मार्गप्रदर्शक को पहचाननें की क्षमता नहीं रखता। यह शेर उन कौ़मों पर कितना चुस्त होता है जिनका कोई नेता नहीं और यूँ ही कभी किसी के बहकावे में और कभी किसी के इशारे पर नाचती रहती हैं ": अयोध्या प्रसाद गोयलीय,”शेर-ओ-शायरी’ से)

शुक्रवार, फ़रवरी 15, 2008

’....साम्यवादी दृष्टिकोण सिर्फ़ राजनीतिक दृष्टिकोण नहीं बल्कि समूचे जीवन और मानवीय इतिहास पर हावी हैं।इस दृष्टि से उनकी बहुत सी नज़्मों में सबसे ज़्यादा मुखर ’मेरा सफ़र’ है जो निश्चित ही इस ज़माने की उर्दू की बेहतरीन नज़्मों में शुमार की जायेगी। नज़्म की पूरी बनावट, उसकी प्रत्येक पंक्ति और नज़्म ख़त्म होने के बाद उसके समग्र प्रभाव से सरदार जाफ़री की असाधारण कला का पता चलता है। वे प्रेम करते हैं, सौन्दर्य के जिज्ञासु हैं और उस पर मन प्राण से न्यौछावर हो जाते हैं, मगर उनके भीतर एक संवेदनशील, करुणावान और हर स्थिति में एक स्वाभाविक व मानवीय आचरण करनें वाला इन्सान है जो कभी जेल के एकान्त में जागती आँखों के साथ अपनें बच्चे के साथ अपने बच्चे की नींद में शामिल होकर उसके साथ सपने देखता है......कभी ख़ुद सरदार व सुल्ताना दुनिया के सारे प्रेम करनें वालों के प्रतीक बन जाते हैं।’
:-सिदीकुर्रहमान क़िदवाई
( अनुवाद: जानकीप्रसाद शर्मा )

मेरा सफ़र : अली सरदार जाफ़री

’हमचू सब्ज़ा बारहा रोईदा-ईम’*
-रूमी

फिर इक दिन ऐसा आयेगा
आँखों के दिये बुझ जाएँगे
हाथों के कवँल कुम्हलाएँगे
और बर्गे-ज़बाँ से नुक्तो सदा
की हर तितली उड़ जाएगी
इक काले समन्दर की तह में
कलियों की तरह से खिलती हुई
फूलों की तरह से हँसती हुई
सारी शक्लें खो जाएँगी
ख़ूँ की गर्दिश, दिल की धड़कन
सब रागनियाँ सो जाएँगी
और नीली फ़ज़ा की मख़मल पर
हँसती हुई हीरे की ये कनी
ये मेरी जन्नत, मेरी ज़मी
इसकी सुबहें, इसकी शामें
बे-जाने हुए, बे-समझे हुए
इक मुश्ते-गु़बारे-इंसा पर
शबनम की तरह रो जाएँगी
यादों के हँसी बुतखा़ने से
हर चीज़ भुला दी जाएगी
फिर कोई नहीं ये पूछेगा
सरदार कहाँ है महफ़िल में

लेकिन मै यहाँ फिर आऊँगा
बच्चों के दहन से बोलूँगा
चिड़ियों की ज़बां से गाउंगा
जब बीज हँसेंगे धरती में
और कोंपलें अपनी उँगली से
मिट्टी की तहों को छेड़ेंगी
मै पत्ती-पत्ती, कली -कली
अपनी आँखें फिर खोलूँगा
सरसब्ज़ हथेली पर लेकर
शबनम के क़तरे तोलूँगा
मैं रंगे-हिना, आहंगे-ग़ज़ल
अन्दाज़े-सुख़न बन जाऊँगा
रुख़्सारे-उरूसे-नौ की तरह
हर आँचल से छन जाऊँगा
जाड़ों की हवाएँ दामन में
जब फ़स्ले-ख़िज़ाँ को लाएँगी
रहरौ के जवाँ क़दमों के तले
सूखे हुए पत्तों से मेरे
हँसने की सदाएँ आएँगी
और सारा ज़माना देखेगा
हर कि़स्सा मेरा अफ़साना है
हर आशिक़ है ’सरदार” यहाँ
हर माशूका ’सुलताना’ है

मैं एक गुरेज़ाँ लम्हा हूँ
अय्याम के अफ़्सूँ-ख़ाने में
मै एक तड़पता क़तरा हूँ
मसरूफ़े-सफ़र जो रह्ता है
माज़ी की सुराही के दिल से
मुस्तक़बिल के पैमाने में
मै सोता हूँ और जागता हूँ
और जाग के फिर सो जाता हूँ
सदियों का पुराना खेल हूँ मैं
मैं मर के अमर हो जाता हूँ
*********************************

*हम हरियाली की तरह बार बार उगे हैं
नुक़्तो-सदा= अभिव्यक्ति, दहन=मुँह, फ़स्ले-ख़िज़ां= पतझड़ की फ़सल , मसरूफ़े-सफ़र= यात्रा में व्यस्त, सुलताना=कवि की पत्नी

गुरुवार, फ़रवरी 07, 2008

कैफ़ी आज़मी

रेत की नाव,झाग के माँझी
काठ की रेल, सीप के हाथी
हल्की भारी प्लास्टिक की कीलें
मोम के चाक जो रुकें न चलें

राख के खेत,धूल के खलियान
भाप के पैरहन धुएँ के मकान
नहर जादू की,पुल दुआओं के
झुनझुनें चंद योजनाओं के

सूत के चेले,मूँज के उस्ताद
तेशे,दफ़्ती के,काँच के फ़र्हाद
आलिम आटे के और रूए के ईमाम
और पन्नी के शाइरान-ए-कराम
ऊन के तीर,रूई की शम्शीर
सदर मिट्टी का और रबर के वज़ीर

अपने सारे खिलौने साथ लिए,
दस्त-ए-खाली में का़यनात लिये
दो सुतूनों में तान कर रस्सी
हम खुदा जाने कब से चलते हैं
न तो मिलते हैं,न सँभलते हैं

पैरहन= वस्त्र , रूए= रूई, शाइरान-ए-कराम=कविगण, दस्त-ए-खाली =ख़ाली हाथ ,सुतूनों= स्तम्भ, खंभा

रविवार, जनवरी 20, 2008

जनाब हसरत मोहानी ”शेर ओ सुख़न" के मुताबिक़ :
वोह पुरखु़लूस ( सच्चे) मगर जज़्बाती ( भावुक) आदमी थे। बहुत जल्द किसी के बारे में कोई राय का़यम कर लेते थे।
हसरत की शायरी उनकी आप-बीती जीवनी है। यही उनकी शायरी की सबसे बड़ी विशेषता है और यही उनकी शायरी का दोष भी।
हसरत नें उर्दू ग़ज़ल की पुरानी रवायतों को नये सांचे में ढा़ला, नई तराश-ख़राश की। उनकी शायरी में मुसहफ़ी जैसे कोमल और मधुर भाव और मोमिन जैसी फ़ारसी तरकीबों का समिश्रण एक अजीब सा लुत्फ़ पैदा कर देता है लेकिन उनके यहाँ मीर जैसा सोज़ो गुदाज़ नहीं है। जो शेवये-गुफ़्तार दिल में चरका लगने पर और जीवन भर खून रोने से आता है, उसे हसरत क्यों कर प्राप्त कर सकते थे? वे कामयाब आशिक़ थे।
हसरत तसलीम लखनवी के शिष्य थे और मोमिन स्कूल के तनहा यादगार।

अब तो उठ सकता नहीं आँखों से बारे-इन्तज़ार
किस तरह काटे कोई लैलो-निहारे-इन्तज़ार
उनकी उलफ़त का यकीं हो उनके आनें की उम्मीद
हों ये दोनों सूरतें, तब है बहारे-इन्तज़ार
उनके ख़त की आरज़ू है, उनकी आमद का ख़्याल
किस क़दर फैला हुआ है, कारोबारे-इंतज़ार


वस्ल की बनती है इन बातों से तदबीरें कहीं ?
आरज़ूओं से फिरा करतीं हैं, तक़दीरें कहीं ?

क्यो कहें हम कि ग़मेदर्द से मुश्किल है फ़राग़
जब तेरी याद में हर फ़िक्र से हासिल है फ़राग़

अब सदमये-हिजराँ से भी डरता नहीं कोई
ले पहुँची है याद उनकी बहुत दूर किसी को



बारे-इंतिज़ार= प्रतीक्षा का बोझ, लैलो-निहारे-इंतिज़ार = प्रतीक्षा के दिन-रात, ग़मेदर्द= दर्द की पीडा़, फ़राग़= छुटकारा,हिजरां= वियोग, वस्ल= मिलन

बुधवार, जनवरी 09, 2008

नन्ही पुजारिन : मजाज़

इक नन्ही मुन्नी सी पुजारिन
पतली बांहें, पतली गरदन
भोर भये मन्दिर आई है
आई नहीं है मां लाई है
वक़्त से पहले जाग उठी है
नींद अभी आंखों में भरी है
ठोड़ी तक लट आई हुई है
यूंही सी लहराई हुई है
आंखों में तारों की चमक है
मुखड़े पर चांदी की झलक है
कैसी सुन्दर है क्या कहिए
नन्ही सी इक सीता कहिए
धूप चढ़े तारा चमका है
पत्थर पर इक फूल खिला है
चांद का टुकडा़, फूल की डाली
कमसिन, सीधी,भोली-भाली
कान में चांदी की बाली है
हाथ में पीतल की थाली है
दिल में लेकिन ध्यान नहीं है
पूजा का कुछ ज्ञान नहीं है
कैसी भोली और सीधी है
मन्दिर की छ्त देख रही है
मां बढ़कर चुटकी लेती है
चुपके चुपके हंस देती है
हंसना रोना उसका मज़हब
उसको पूजा से क्या मतलब
खु़द तो आयी है मन्दिर में
मन है उसका गुड़िया-घर में