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रविवार, मई 25, 2008

मिर्ज़ा दाग़ ( जन्म २५ मई १८३१)
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बशर ने खा़क पाया, लाल पाया या गुहर पाया।
मिज़ाज अच्छा अगर पाया तो सब कुछ उसने भर पाया ॥

समझो पत्थर की तुम लकीर उसे।
जो हमारी ज़बान से निकला ॥

जिसमे लाखों बरस की हूरें हो।
ऐसी जन्नत को क्या करे कोई॥

कहीं दुनिया मे नहीं इसका ठिकाना ऐ ’दाग़’!
छोड़कर मुझको कहाँ जाय मुसीबत मेरी ?

P گوهر gauhar, or gohar, s.m. Nature, essence, substance, stuff, matter; form; origin, root, stock, extraction; seed, offspring;--any hidden virtue;--intellect; wisdom;--a pearl; jewel, gem, precious stone:--lustre (of a gem, or a sword;--cf.



मंगलवार, मई 20, 2008

मीर मुहम्मद तकी़ मीर

"मीर साह्ब ई सन १७०९ में आगरे में पैदा हुए और १०० वर्ष की आयु में ई सन १८०९ में समाधि पायी।
६५ वर्ष की आय तक आप दिल्ली में ही रहे।
आप आवश्यकता से अधिक स्वाभिमानी , संतोषी, निस्वार्थी और कष्टसहिष्णु थे ।
माँगनें से मरना बेहतर समझते थे।
उम्र भर बाँकपन की टेक निभानें वाले मीर, ज़रा कड़वे मिज़ाज के थे।
मिलनसारी, ज़मानेंसाज़ी शायद पास तक नहीं फटकती थी। दूसरों की प्रशंसा करनें में भी कंजूस थे।
ज़रा सी बात दिल को ठेस पहुँचा देती ।
कौन मनुष्य कैसे व्यवहार का आदी है, यह वह जानते ही न थे । जो दिल में आता वही कह देते।
मीर के अशआर ग़मगीन और चुटीले दिलों पर खा़स असर करते हैं...मीर की शायरी तारीकी और ग़म से भरी हुई है, जिसमें कि उम्मीद की झलक नज़र नहीं आती।"
*********शेर ओ शायरी ********

कहते हो तो यूँ कहते, यूँ कहते जो वोह आता।
सब कहनें की बातें हैं, कुछ भी न कहा जाता॥

कहता है कौन तुझको याँ यह न कर तू वोह कर।
पर, हो सके तो प्यारे, दिल में भी टुक जगह कर॥

गुल की जफ़ा भी देखी, देखी वफ़ाए बुलबुल।
इक मुश्त पर पड़े हैं गुलशन में जाए बुलबुल॥

लुत्फ़ क्या है हर किसू की चाह के साथ।
चाह वोह है जो हो निबाह के साथ॥

मत ढ़लक मिज़गाँ से मेरे ऐ सरअश्क़ेआबदार ।
मुफ़्त ही जाती रहेगी तेरी मोती-की सी आब ॥

शुक्रवार, मई 09, 2008

वोह निकहत से सिवा पिन्हाँ, वोह गुलसे भी सिवा उरियां
यह हम हैं जो कभी परदा कभी जलवा समझते हैं ॥
*************असग़र गोंडवी************

+उरियाँ यहाँ प्रकट के अर्थ में प्रयोगित मालूम पड़ता है+

मंगलवार, मई 06, 2008

असग़र गोंडवी मार्च १, १८८४ ई. में पैदा हुए ।
असग़रहुसैन साहब ’असग़र’ शायर न होते तो भी उनकी प्रसिद्धि में कोई अंतर न आता।
आप सदाचारी और पवित्र थे ।
आमदनी अल्प होते हुए भी न कभी आपने तंगदस्ती का किसी से ज़िक्र किया,
न कभी मेहमाँनवाज़ी में अंतर रहनें दिया।
असग़र का प्रेम ईश्वरीय प्रेम है ।
आपके किसी शेर में दार्शनिकता है तो किसी में आध्यात्मिकता की झलक।
जो भी कहा गया है, बहुत गहरे में डूबकर कहा गया है। ":- शेर-ओ-सुख़न

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यह इश्क़ ने देखा है, यह अक़्ल से पिन्हां है
क़तरे में समंदर है, ज़र्रे में बयाबाँ है॥
धोका है यह नज़रों का, बाज़ीचा है, लज़्ज़त का।
जो कुंजे-क़फ़स मे था, वोह अस्ल गुलिस्तां है ।
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शनिवार, मई 03, 2008

मिर्ज़ा ग़ालिब

चलता हूँ थोड़ी दूर हर इक तेज़रौ के साथ।
पहचानता नहीं हूँ अभी राहबर को मैं।

( "जिस आदमी में कोई सिफ़ात देखता हूँ उसी पर विश्वास कर लेता हूँ, जिस किसी को अग्रगामी देख लेता हूँ उसी के पीछे चल पड़ता हूँ, इसका कारण यह है कि मैं अभी सच्चे हितैषी और मार्गप्रदर्शक को पहचाननें की क्षमता नहीं रखता। यह शेर उन कौ़मों पर कितना चुस्त होता है जिनका कोई नेता नहीं और यूँ ही कभी किसी के बहकावे में और कभी किसी के इशारे पर नाचती रहती हैं ": अयोध्या प्रसाद गोयलीय,”शेर-ओ-शायरी’ से)