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शुक्रवार, फ़रवरी 15, 2008

’....साम्यवादी दृष्टिकोण सिर्फ़ राजनीतिक दृष्टिकोण नहीं बल्कि समूचे जीवन और मानवीय इतिहास पर हावी हैं।इस दृष्टि से उनकी बहुत सी नज़्मों में सबसे ज़्यादा मुखर ’मेरा सफ़र’ है जो निश्चित ही इस ज़माने की उर्दू की बेहतरीन नज़्मों में शुमार की जायेगी। नज़्म की पूरी बनावट, उसकी प्रत्येक पंक्ति और नज़्म ख़त्म होने के बाद उसके समग्र प्रभाव से सरदार जाफ़री की असाधारण कला का पता चलता है। वे प्रेम करते हैं, सौन्दर्य के जिज्ञासु हैं और उस पर मन प्राण से न्यौछावर हो जाते हैं, मगर उनके भीतर एक संवेदनशील, करुणावान और हर स्थिति में एक स्वाभाविक व मानवीय आचरण करनें वाला इन्सान है जो कभी जेल के एकान्त में जागती आँखों के साथ अपनें बच्चे के साथ अपने बच्चे की नींद में शामिल होकर उसके साथ सपने देखता है......कभी ख़ुद सरदार व सुल्ताना दुनिया के सारे प्रेम करनें वालों के प्रतीक बन जाते हैं।’
:-सिदीकुर्रहमान क़िदवाई
( अनुवाद: जानकीप्रसाद शर्मा )

मेरा सफ़र : अली सरदार जाफ़री

’हमचू सब्ज़ा बारहा रोईदा-ईम’*
-रूमी

फिर इक दिन ऐसा आयेगा
आँखों के दिये बुझ जाएँगे
हाथों के कवँल कुम्हलाएँगे
और बर्गे-ज़बाँ से नुक्तो सदा
की हर तितली उड़ जाएगी
इक काले समन्दर की तह में
कलियों की तरह से खिलती हुई
फूलों की तरह से हँसती हुई
सारी शक्लें खो जाएँगी
ख़ूँ की गर्दिश, दिल की धड़कन
सब रागनियाँ सो जाएँगी
और नीली फ़ज़ा की मख़मल पर
हँसती हुई हीरे की ये कनी
ये मेरी जन्नत, मेरी ज़मी
इसकी सुबहें, इसकी शामें
बे-जाने हुए, बे-समझे हुए
इक मुश्ते-गु़बारे-इंसा पर
शबनम की तरह रो जाएँगी
यादों के हँसी बुतखा़ने से
हर चीज़ भुला दी जाएगी
फिर कोई नहीं ये पूछेगा
सरदार कहाँ है महफ़िल में

लेकिन मै यहाँ फिर आऊँगा
बच्चों के दहन से बोलूँगा
चिड़ियों की ज़बां से गाउंगा
जब बीज हँसेंगे धरती में
और कोंपलें अपनी उँगली से
मिट्टी की तहों को छेड़ेंगी
मै पत्ती-पत्ती, कली -कली
अपनी आँखें फिर खोलूँगा
सरसब्ज़ हथेली पर लेकर
शबनम के क़तरे तोलूँगा
मैं रंगे-हिना, आहंगे-ग़ज़ल
अन्दाज़े-सुख़न बन जाऊँगा
रुख़्सारे-उरूसे-नौ की तरह
हर आँचल से छन जाऊँगा
जाड़ों की हवाएँ दामन में
जब फ़स्ले-ख़िज़ाँ को लाएँगी
रहरौ के जवाँ क़दमों के तले
सूखे हुए पत्तों से मेरे
हँसने की सदाएँ आएँगी
और सारा ज़माना देखेगा
हर कि़स्सा मेरा अफ़साना है
हर आशिक़ है ’सरदार” यहाँ
हर माशूका ’सुलताना’ है

मैं एक गुरेज़ाँ लम्हा हूँ
अय्याम के अफ़्सूँ-ख़ाने में
मै एक तड़पता क़तरा हूँ
मसरूफ़े-सफ़र जो रह्ता है
माज़ी की सुराही के दिल से
मुस्तक़बिल के पैमाने में
मै सोता हूँ और जागता हूँ
और जाग के फिर सो जाता हूँ
सदियों का पुराना खेल हूँ मैं
मैं मर के अमर हो जाता हूँ
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*हम हरियाली की तरह बार बार उगे हैं
नुक़्तो-सदा= अभिव्यक्ति, दहन=मुँह, फ़स्ले-ख़िज़ां= पतझड़ की फ़सल , मसरूफ़े-सफ़र= यात्रा में व्यस्त, सुलताना=कवि की पत्नी

गुरुवार, फ़रवरी 07, 2008

कैफ़ी आज़मी

रेत की नाव,झाग के माँझी
काठ की रेल, सीप के हाथी
हल्की भारी प्लास्टिक की कीलें
मोम के चाक जो रुकें न चलें

राख के खेत,धूल के खलियान
भाप के पैरहन धुएँ के मकान
नहर जादू की,पुल दुआओं के
झुनझुनें चंद योजनाओं के

सूत के चेले,मूँज के उस्ताद
तेशे,दफ़्ती के,काँच के फ़र्हाद
आलिम आटे के और रूए के ईमाम
और पन्नी के शाइरान-ए-कराम
ऊन के तीर,रूई की शम्शीर
सदर मिट्टी का और रबर के वज़ीर

अपने सारे खिलौने साथ लिए,
दस्त-ए-खाली में का़यनात लिये
दो सुतूनों में तान कर रस्सी
हम खुदा जाने कब से चलते हैं
न तो मिलते हैं,न सँभलते हैं

पैरहन= वस्त्र , रूए= रूई, शाइरान-ए-कराम=कविगण, दस्त-ए-खाली =ख़ाली हाथ ,सुतूनों= स्तम्भ, खंभा