मिर्ज़ा दाग़ ( जन्म २५ मई १८३१)
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बशर ने खा़क पाया, लाल पाया या गुहर पाया।
मिज़ाज अच्छा अगर पाया तो सब कुछ उसने भर पाया ॥
समझो पत्थर की तुम लकीर उसे।
जो हमारी ज़बान से निकला ॥
जिसमे लाखों बरस की हूरें हो।
ऐसी जन्नत को क्या करे कोई॥
कहीं दुनिया मे नहीं इसका ठिकाना ऐ ’दाग़’!
छोड़कर मुझको कहाँ जाय मुसीबत मेरी ?
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बशर ने खा़क पाया, लाल पाया या गुहर पाया।
मिज़ाज अच्छा अगर पाया तो सब कुछ उसने भर पाया ॥
समझो पत्थर की तुम लकीर उसे।
जो हमारी ज़बान से निकला ॥
जिसमे लाखों बरस की हूरें हो।
ऐसी जन्नत को क्या करे कोई॥
कहीं दुनिया मे नहीं इसका ठिकाना ऐ ’दाग़’!
छोड़कर मुझको कहाँ जाय मुसीबत मेरी ?
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4 टिप्पणियां:
आभार इस प्रस्तुति का. वर्ड वेरिफिकेशन, अगर असुविधा न हो तो, अलग कर दें. टिप्पणी करना सरल हो जायेगा.
हूरों वाले शेर पर हम सलाम पेश करते हैं ।
मुकर्रर मुकर्रर ।
छोड़कर मुझको कहाँ जाय मुसीबत मेरी ?
उम्दा!!!
ये ग़ज़ल दाग देहलवी साहब की है या कोई और दाग साहब है? उत्तर का इंतज़ार रहेगा .....अच्छा लगा आप को पढना.
विचारो की जमीं
बहुत बढ़िया!
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