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शुक्रवार, मई 26, 2006

नवाब मिर्ज़ा खाँ 'दाग़' का जन्म २५ मई ,१८३१ को दिल्ली के चाँदनीं चौक में नवाब शमसुद्दीन ( नवाब लोहारा के भाई) के घर हुआ था। दाग़ जब ६ बरस के थे तो पिता को खो बैठे । उसके बाद दाग़, माँ के बहादुरशाह बादशाह के युवराज साथ पुनर्विवाह के बाद शाही किले में रहनें आ गये जहाँ, शाही ढंग से उनकी शिक्षा हुई। ११ साल की उम्र से ही दाग़ कविता करनें लगे थे । मौलाना हामिदहुसैन कादरी के अनुसार : ' ग़ज़ल की ख़ूबी के लिये ज़रूरी है कि अलफ़ाज़ फ़सीह ( सुन्दर एवं भावयुक्त) हो, बन्दिश चुस्त व सही हो। मुहावरात का इस्तेमाल मौज़ूँ व बरमहल हो। तर्ज़ेअदा में जिद्दत हो। दाग़ के यहाँ ये सब चीज़ें बेहतर से बेहतर हैं और उनपर शोख़बयानी और ज़राफ़त तराज़ी का इज़ाफ़ा है। दाग़ का सबसे चमकता रंग शोख़बयानी है ।'
दिल में रहता है जो, आँखों से निहां रहता है
पूछते-फिरते हैं वो, ' दाग़ ' कहाँ रहता है
कौन सा चाहने वाला है तुम्हारा ममनून
सर तो रहता नहीं, एहसान कहाँ रहता है
वह कड़ी बात से लेते हैं जो चुटकी दिल में
पहरों उनके लबे-नाज़ुक पे निशां रहता है
मैं बुरा हूँ तो बुरा जान के मिलिये मुझसे
ऐब को ऐब समझिए तो कहां रहता है
ख़ाना-ए-दिल में तकल्लुफ़ भी रहे थोड़ा-सा
कि तेरा दाग़ , तेरा दर्द यहां रहता है
लामकां तक की ख़्रबर हज़रते-वाइज़ ने कही
यह तो फ़रमाएं कि अल्लाह कहां रहता है
अपने कूचे में नई राह निकाल अपनें लिए
कि यहां मजमा-ए-आफ़तज़दगां रहता है
ज़ख़्म आएं तो सभी ख़ुश्क हुआ करते हैं
'दाग़' मिटता ही नहीं, इसका निशां रहता है
निहां= छिपा हुआ , ममनून= एहसानमंद, तकल्लुफ़= औपचारिकता, लामकां = बेघर, हज़रते-वाइज़= उपदेशक, मजमा-ए-आफ़तज़दगां = आफ़त का मारा हुआ

सोमवार, फ़रवरी 13, 2006

आधुनिक उर्दू साहित्य में विशेष स्थान रखने वाले शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का जन्म १३ फ़रवरी १९११ को सियालकोट में हुआ था । फ़ैज़ नें अपने कविता संग्रह नक़्शे-फ़रियादी की भूमिका में लिखा था '" शे'र लिखना जुर्म न सही लेकिन बेवजह शे'र लिखते रहना ऐसी अक़्लमंदी भी नही है ।"
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मता-ए-लौहो-क़लम छिन गई तो क्या ग़म है
कि ख़ूने-दिल में डुबो ली हैं उंगलियां मैने
ज़बां पे मुहर लगी है तो क्या, कि रख दी है
हर एक हल्क़-ए-ज़ंजीर में ज़बां मैने
मता-ए-लौहो-क़लम = क़लम और तख्ती की पूंजी, ख़ूने-दिल =ह्र्दय रक्त,हल्क़-ए-ज़ंजीर = ज़ंजीर की हर एक कड़ी