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गुरुवार, फ़रवरी 07, 2008

कैफ़ी आज़मी

रेत की नाव,झाग के माँझी
काठ की रेल, सीप के हाथी
हल्की भारी प्लास्टिक की कीलें
मोम के चाक जो रुकें न चलें

राख के खेत,धूल के खलियान
भाप के पैरहन धुएँ के मकान
नहर जादू की,पुल दुआओं के
झुनझुनें चंद योजनाओं के

सूत के चेले,मूँज के उस्ताद
तेशे,दफ़्ती के,काँच के फ़र्हाद
आलिम आटे के और रूए के ईमाम
और पन्नी के शाइरान-ए-कराम
ऊन के तीर,रूई की शम्शीर
सदर मिट्टी का और रबर के वज़ीर

अपने सारे खिलौने साथ लिए,
दस्त-ए-खाली में का़यनात लिये
दो सुतूनों में तान कर रस्सी
हम खुदा जाने कब से चलते हैं
न तो मिलते हैं,न सँभलते हैं

पैरहन= वस्त्र , रूए= रूई, शाइरान-ए-कराम=कविगण, दस्त-ए-खाली =ख़ाली हाथ ,सुतूनों= स्तम्भ, खंभा

गुरुवार, नवंबर 17, 2005

तरक़्क़ीपसंद शायर कैफ़ी आज़मी की लेखनी ,आम आदमी की समस्याओं के लिये करुणामयी होती है तो जूझने के लिये आशा और विश्वास भी प्रदान करती है । शायर का अवलोकन और अन्वेषण अनूठा है और मानों हमें, अपने आप से जोड़ जाता है ।

वो भी सराहने लगे अरबाबे-फ़न के बाद
दादे-सुख़न मिली मुझे तर्के-वतन के बाद

दीवानावार चाँद से आगे निकल गए
ठहरा न दिल कहीं भी तेरी अंजुमन के बाद

एलाने-हक़ में ख़तरा-ए-दारो' रसन तो है
लेकिन सवाल ये है कि दारो-रसन के बाद

होंटों को सी के देखिये पछताइएगा आप
हंगामें जाग जाते हैं अक्सर घुटन के बाद

ग़ुरबत की ठंडी छाँव में याद आई उसकी धूप
क़द्रे-वतन हुई हमें तर्के-वतन के बाद

इंसाँ की ख़ाहिशों की कोई इन्तेहा नहीं
दो गज़ ज़मीन चाहिए, दो गज़ कफ़न के बाद

अरबाब= मित्रों, दादे-सुख़न= कविता की प्रशंसा, तर्के-वतन=वतन छोड़ना, खतरा-ए-दारो'रसन=फ़ाँसी पाने का ख़तरा,ग़ुरबत= परदेस