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रविवार, मई 25, 2008

मिर्ज़ा दाग़ ( जन्म २५ मई १८३१)
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बशर ने खा़क पाया, लाल पाया या गुहर पाया।
मिज़ाज अच्छा अगर पाया तो सब कुछ उसने भर पाया ॥

समझो पत्थर की तुम लकीर उसे।
जो हमारी ज़बान से निकला ॥

जिसमे लाखों बरस की हूरें हो।
ऐसी जन्नत को क्या करे कोई॥

कहीं दुनिया मे नहीं इसका ठिकाना ऐ ’दाग़’!
छोड़कर मुझको कहाँ जाय मुसीबत मेरी ?

P گوهر gauhar, or gohar, s.m. Nature, essence, substance, stuff, matter; form; origin, root, stock, extraction; seed, offspring;--any hidden virtue;--intellect; wisdom;--a pearl; jewel, gem, precious stone:--lustre (of a gem, or a sword;--cf.



शुक्रवार, मई 25, 2007

मिर्ज़ा दाग़ ( जन्म : २५ मई, १८३१) के चुने हुए शेर

न बदले आदमी जन्नत से भी बैतुल-हज़न अपना
कि अपना घर है अपना, और है अपना वतन अपना

जो भले हैं,वो बुरों को भी भला कहते हैं
न बुरा सुनते हैं अच्छे, न बुरा कहते है

वो नक़दे-दिल को हमेंशा नज़र में रखते हैं
जो आंख वाले हैं,अच्छा-बुरा परखते हैं

बादशाहों को भी लोग हैं देने वाले
यह फ़क़ीरों ही को अल्लाह ने हिम्मत दी है

ढ़ूंढ़ती है तुझे मेरी आंखें
ए वफ़ा कुछ तेरा पता भी है

न आया है, न आए उनके वादे का यक़ीं बरसों
यूं ही आज-कल-परसों, मगर मिलते नहीं बरसों


यहाँ सुनिये दाग़ की लिखी ग़ज़ल -" न- रवा कहिये"

बैतुल-हज़न=निवास स्थान, नक़दे-दिल= हृदय -पूँजी, रवा =बेढंगा

शुक्रवार, मई 26, 2006

नवाब मिर्ज़ा खाँ 'दाग़' का जन्म २५ मई ,१८३१ को दिल्ली के चाँदनीं चौक में नवाब शमसुद्दीन ( नवाब लोहारा के भाई) के घर हुआ था। दाग़ जब ६ बरस के थे तो पिता को खो बैठे । उसके बाद दाग़, माँ के बहादुरशाह बादशाह के युवराज साथ पुनर्विवाह के बाद शाही किले में रहनें आ गये जहाँ, शाही ढंग से उनकी शिक्षा हुई। ११ साल की उम्र से ही दाग़ कविता करनें लगे थे । मौलाना हामिदहुसैन कादरी के अनुसार : ' ग़ज़ल की ख़ूबी के लिये ज़रूरी है कि अलफ़ाज़ फ़सीह ( सुन्दर एवं भावयुक्त) हो, बन्दिश चुस्त व सही हो। मुहावरात का इस्तेमाल मौज़ूँ व बरमहल हो। तर्ज़ेअदा में जिद्दत हो। दाग़ के यहाँ ये सब चीज़ें बेहतर से बेहतर हैं और उनपर शोख़बयानी और ज़राफ़त तराज़ी का इज़ाफ़ा है। दाग़ का सबसे चमकता रंग शोख़बयानी है ।'
दिल में रहता है जो, आँखों से निहां रहता है
पूछते-फिरते हैं वो, ' दाग़ ' कहाँ रहता है
कौन सा चाहने वाला है तुम्हारा ममनून
सर तो रहता नहीं, एहसान कहाँ रहता है
वह कड़ी बात से लेते हैं जो चुटकी दिल में
पहरों उनके लबे-नाज़ुक पे निशां रहता है
मैं बुरा हूँ तो बुरा जान के मिलिये मुझसे
ऐब को ऐब समझिए तो कहां रहता है
ख़ाना-ए-दिल में तकल्लुफ़ भी रहे थोड़ा-सा
कि तेरा दाग़ , तेरा दर्द यहां रहता है
लामकां तक की ख़्रबर हज़रते-वाइज़ ने कही
यह तो फ़रमाएं कि अल्लाह कहां रहता है
अपने कूचे में नई राह निकाल अपनें लिए
कि यहां मजमा-ए-आफ़तज़दगां रहता है
ज़ख़्म आएं तो सभी ख़ुश्क हुआ करते हैं
'दाग़' मिटता ही नहीं, इसका निशां रहता है
निहां= छिपा हुआ , ममनून= एहसानमंद, तकल्लुफ़= औपचारिकता, लामकां = बेघर, हज़रते-वाइज़= उपदेशक, मजमा-ए-आफ़तज़दगां = आफ़त का मारा हुआ