निदा फ़ाज़ली का जन्म १२ अक्टूबर १९३८ को दिल्ली में हुआ। बचपन ग्वालियर में गुज़रा। पहला कविता संग्रह : ’लफ़्ज़ों का पुल’ । १९९९ में ’ खोया हुआ सा कुछ’ के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित।
शानी के अनुसार ’ उर्दू शायरी की सबसे बडी़ शिनाख़्त यह है कि उसने फ़ारसी की अलामतों से अपना पीछा छुडा्कर अपनें आसपास को देखा, अपने इर्द गिर्द की आवाज़ें सुनी और अपनी ही ज़मीन से उखड़ती जडो को फिर से जगह देकर मीर, मीराजी, अख़्तरुल ईमान, जानिसार अख़्तर जैसे कवियों से अपना नया नाता जोडा़।...... यह संयोग की बात नहीं है कि उर्दू के कुछ जदीद शायरों ने तो हिन्दी और उर्दू की दीवार ही ढ़हाकर रख दी है और ऐसे जदीदियों में निदा फ़ाज़ली का नाम सबसे पहले लिया जाएगा।’
नई भाषा
( अपनी बेटी तहरीर के लिए)
वो आई
और उसने मुस्कुराके
मेरी बढ़ती उम्र के
सारे पुराने, जाने-पहचाने बरस
पहले हवाओं में उडा़ए
और फिर
मेरी ज़बाँ के सारे लफ़्ज़ों को
ग़ज़ल को
गीत को
दोहों को
नज़मों को
खुली खिड़की के बाहर फेंक कर
यूँ खिलखिलाई
कलम ने मेज़ पर लेटे ही लेटे
आँख मिचकाई
म्याऊँ करके कूदी
बंद शीशी में पडी़ स्याही
उठा के हाथ दोनो चाय के कप ने ली
अंगडा़ई
छ्लाँगे मार के हंसने लगी
बरसों की तन्हाई
अचानक मेरे होठों पर
इशारों और बेमानी सदाओं की
वही भाषा उभर आई
जिसे लिखता है सूरज
जिसे पढ़ता है दर्या
जिसे सुनता है सब्ज़ा
जिसे सदियों से बादल बोलता है
और हर धरती समझती है
शानी के अनुसार ’ उर्दू शायरी की सबसे बडी़ शिनाख़्त यह है कि उसने फ़ारसी की अलामतों से अपना पीछा छुडा्कर अपनें आसपास को देखा, अपने इर्द गिर्द की आवाज़ें सुनी और अपनी ही ज़मीन से उखड़ती जडो को फिर से जगह देकर मीर, मीराजी, अख़्तरुल ईमान, जानिसार अख़्तर जैसे कवियों से अपना नया नाता जोडा़।...... यह संयोग की बात नहीं है कि उर्दू के कुछ जदीद शायरों ने तो हिन्दी और उर्दू की दीवार ही ढ़हाकर रख दी है और ऐसे जदीदियों में निदा फ़ाज़ली का नाम सबसे पहले लिया जाएगा।’
नई भाषा
( अपनी बेटी तहरीर के लिए)
वो आई
और उसने मुस्कुराके
मेरी बढ़ती उम्र के
सारे पुराने, जाने-पहचाने बरस
पहले हवाओं में उडा़ए
और फिर
मेरी ज़बाँ के सारे लफ़्ज़ों को
ग़ज़ल को
गीत को
दोहों को
नज़मों को
खुली खिड़की के बाहर फेंक कर
यूँ खिलखिलाई
कलम ने मेज़ पर लेटे ही लेटे
आँख मिचकाई
म्याऊँ करके कूदी
बंद शीशी में पडी़ स्याही
उठा के हाथ दोनो चाय के कप ने ली
अंगडा़ई
छ्लाँगे मार के हंसने लगी
बरसों की तन्हाई
अचानक मेरे होठों पर
इशारों और बेमानी सदाओं की
वही भाषा उभर आई
जिसे लिखता है सूरज
जिसे पढ़ता है दर्या
जिसे सुनता है सब्ज़ा
जिसे सदियों से बादल बोलता है
और हर धरती समझती है
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