यह ब्लॉग खोजें

गुरुवार, नवंबर 17, 2005

तरक़्क़ीपसंद शायर कैफ़ी आज़मी की लेखनी ,आम आदमी की समस्याओं के लिये करुणामयी होती है तो जूझने के लिये आशा और विश्वास भी प्रदान करती है । शायर का अवलोकन और अन्वेषण अनूठा है और मानों हमें, अपने आप से जोड़ जाता है ।

वो भी सराहने लगे अरबाबे-फ़न के बाद
दादे-सुख़न मिली मुझे तर्के-वतन के बाद

दीवानावार चाँद से आगे निकल गए
ठहरा न दिल कहीं भी तेरी अंजुमन के बाद

एलाने-हक़ में ख़तरा-ए-दारो' रसन तो है
लेकिन सवाल ये है कि दारो-रसन के बाद

होंटों को सी के देखिये पछताइएगा आप
हंगामें जाग जाते हैं अक्सर घुटन के बाद

ग़ुरबत की ठंडी छाँव में याद आई उसकी धूप
क़द्रे-वतन हुई हमें तर्के-वतन के बाद

इंसाँ की ख़ाहिशों की कोई इन्तेहा नहीं
दो गज़ ज़मीन चाहिए, दो गज़ कफ़न के बाद

अरबाब= मित्रों, दादे-सुख़न= कविता की प्रशंसा, तर्के-वतन=वतन छोड़ना, खतरा-ए-दारो'रसन=फ़ाँसी पाने का ख़तरा,ग़ुरबत= परदेस

कोई टिप्पणी नहीं: