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शुक्रवार, जून 24, 2011

यार ख़ुदा का वास्ता , कितने ग़ज़ब की बात है |
तेरी ज़बीं पे सुबह है,      मेरी नज़र में रात है ||

आज ये इल्तिफात क्यों , सैले-तकल्लुफ़ात क्यों ?
क्या कोई ख़ास भेद है ,क्या कोई ख़ास बात है ?

 सुबहे -'अदम' का दूर तक मिलता नहीं कोई निशां |
कितनी दराज़ ज़ुल्फ़ है,        कितनी तवील रात है ||

*Notice the usage of different words with the same meaning - दराज़ and तवील *

 

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