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गुरुवार, मई 10, 2007

असरारुल हक़ "मजाज़" का जन्म १९०९ में अवध के एक प्रसिद्ध कस्बे रदौली में हुआ था । मजाज़ की शायरी का आरम्भ बिलकुल परम्परागत ढंग से हुआ और उन्होनें उर्दू शायारी के मिज़ाज का सदैव ख़्याल रखा। श्री प्रकाश पंडित मजाज़ की शायरी में देखते है "सुलझा हुआ बोध या विवेक" और लिखते हैं "खा़लिस इश्क़िया शायरी करते हुए भी वह अपनें जीवन तथा जन साधारण के जीवन के प्रभावों तथा प्रकृतियों को विस्मृत नहीं करता । हुस्नों-इश्क़ का एक अलग संसार बसाने की बजाय वह हुस्नों-इश्क़ पर लगे सामाजिक प्रतिबन्धों के प्रति अपना रोष प्रगट करता है।आसमानी हूरों की ओर देखनें की बजाय उसकी नज़र रास्ते के गंदे लेकिन ह्र्दयाकर्षक सौन्दर्य पर पड़ती है और इन दृश्यों के प्रेक्षण के बाद वह जन-साधारण की तरह जीवन के दु:ख-दर्द के बारे में सोचता है और फिर कलात्मक निखार के साथ जो शे’र कहता है तो उसमें केवल किसी’ज़ोहरा-जबीं’ से प्रेम ही नहीं होता,विद्रोह की झलक भी होती है। यह विद्रोह कभी वह वर्तमान जीवन-व्यव्स्था से करता है, कभी साम्राज्य से;और जीवन की वंचनाओं के वशीभूत कभी कभी इतना कटु हो जाता है कि अपनी ज़ोहरा-जबीनों के रंगमहलों को छिन्न-भिन्न कर देना चाहता है।"

नहीं ये फ़िक्र कोई रहबरे-कामिल नहीं मिलता
कोई दुनिया में मानूसे-मिज़ाजे-दिल नहीं मिलता

कभी साहिल पे रहकर शौक़ तूफ़ानों से टकराएं
कभी तूफ़ां में रहकर फ़िक्र है साहिल नहीं मिलता

ये आना कोइ आना है कि बस रस्मन चले आये
ये मिलना खा़क मिलना है कि दिल से दिल नहीं मिलता

शिकस्ता-पा को मुज़्दा, ख़स्तगाने-राह को मुज़्दा
कि रहबर को सुराग़े-जादा-ए-मंज़िल नहीं मिलता

वहां कितनों को तख़्तो ताज का अरमां है क्या कहिये
जहां साइल को अक्सर कासा-ए-साइल नहीं मिलता

ये क़त्ले-आम और बे-इज़्न क़त्ले-आम क्या कहिये
ये बिस्मिल कैसे बिस्मिल हैं जिन्हें का़तिल नहीं मिलता

रहबरे-कामिल= सिद्ध पथ-प्रदर्शक, मानूसे-मिज़ाजे-दिल= स्वभाव से परिचित( मित्र), शिकस्ता-पा= शिथिल जनों को, मुज़्दा=मंगल समाचार, ख़स्त्गाने-राह= मंज़िल के मार्ग का पता ,साइल=भिखारी, कासा-ए-साइल=भिक्षा-पात्र,
बे-इज़्न क़त्ले -आम= निर्देश बिना सर्व-संहार, बिस्मिल= आहत


1 टिप्पणी:

स्वाती आंबोळे ने कहा…

पूरे एक सालके बाद ब्लॉग अपडेट किया है तुमने । इतनी गॅप मत लिया करो ।
शायरी बेहतरीन है - हमेशाकी तरह । :)