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मंगलवार, मई 20, 2008

मीर मुहम्मद तकी़ मीर

"मीर साह्ब ई सन १७०९ में आगरे में पैदा हुए और १०० वर्ष की आयु में ई सन १८०९ में समाधि पायी।
६५ वर्ष की आय तक आप दिल्ली में ही रहे।
आप आवश्यकता से अधिक स्वाभिमानी , संतोषी, निस्वार्थी और कष्टसहिष्णु थे ।
माँगनें से मरना बेहतर समझते थे।
उम्र भर बाँकपन की टेक निभानें वाले मीर, ज़रा कड़वे मिज़ाज के थे।
मिलनसारी, ज़मानेंसाज़ी शायद पास तक नहीं फटकती थी। दूसरों की प्रशंसा करनें में भी कंजूस थे।
ज़रा सी बात दिल को ठेस पहुँचा देती ।
कौन मनुष्य कैसे व्यवहार का आदी है, यह वह जानते ही न थे । जो दिल में आता वही कह देते।
मीर के अशआर ग़मगीन और चुटीले दिलों पर खा़स असर करते हैं...मीर की शायरी तारीकी और ग़म से भरी हुई है, जिसमें कि उम्मीद की झलक नज़र नहीं आती।"
*********शेर ओ शायरी ********

कहते हो तो यूँ कहते, यूँ कहते जो वोह आता।
सब कहनें की बातें हैं, कुछ भी न कहा जाता॥

कहता है कौन तुझको याँ यह न कर तू वोह कर।
पर, हो सके तो प्यारे, दिल में भी टुक जगह कर॥

गुल की जफ़ा भी देखी, देखी वफ़ाए बुलबुल।
इक मुश्त पर पड़े हैं गुलशन में जाए बुलबुल॥

लुत्फ़ क्या है हर किसू की चाह के साथ।
चाह वोह है जो हो निबाह के साथ॥

मत ढ़लक मिज़गाँ से मेरे ऐ सरअश्क़ेआबदार ।
मुफ़्त ही जाती रहेगी तेरी मोती-की सी आब ॥

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